Saturday, April 18, 2015

चलो तुम्हें एक कथा सुनाऊँ ...

यह कविता मैंने TFI की 'Story Of  Us' के लिए लिखी थी। जून २०१४ में।

चलो तुम्हें एक कथा सुनाऊँ,
नीरव मन का नाद सुनाऊँ।

आगाज़ है जिसका मन सागर मंथन
भूमिका बानी लहरों का गुंजन
ले सूर्य से तपिश
नव जीवन के निर्माण को मैंने दिया निमंत्रण ।

चलो तुम्हें …

जीवन को हिस्सों मैं बाँट बैठा था
आया था कहाँ से, जाना कहाँ
सब खो के भूल बैठा था।
रंगों से भरी  इस दुनिआ को
व्यापार समझ सब गवां बैठा था॥

चलो तुम्हें …

फिर थामा हाथ सशक्त एक मांझी ने
दी पतवार जो गहराई को नाप ले
शब्दों में भर मिठास
उसने कहा, "कौन है तू, यह पहले जान ले" ।

चलो तुम्हें …

जड़ कदम गिरे उठते - उठते
फैले ये पंख यूं उड़ते - उड़ते।
ले गहरी सांस, उठा के आँख
हुआ आसमां सीमित
मिटने लगा रंज गहरा, सबके साथ हँसते - हँसते॥

चलो तुम्हें …

सीखा मैंने पहला कदम उठाना
मस्तिष्क की नसों को ढीला कर
मुस्कुराना, हाथ बढ़ाना
आँखों में दबी बात पढ़ना,चंद लम्हों को बाँट समेटना
गिरते का हाथ पकड़ना, खुद गिरकर उठ शान से चलना।

चलो तुम्हे …

सुबह हुई जब बीती वो रात घनी
ओंस बनी जो चंचलता थमी।
बच्चों ने जब हाथ पकड़ा
कुछ बोध हुआ और बात बनी ॥

चलो तुम्हें …

पर्वत भी अब झुक जायेंगे
निर्गुण कण विषाद में घुल जाएंगे
दृढ़ता छीन अब गूढ़ सागर से
अमर पथ पे अब चलते जाएंगे।
प्रेम, विनय और साहस के ले मशाल
हम कारवां मंज़िल तक ले जाएंगे ॥

चलो तुम्हें एक कथा सुनाऊँ
नीरव मन का नाद सुनाऊँ …

-- नीरव


Saturday, March 7, 2009

उठती लहर

उठती लहर - चूमती शिखर
करे प्रश्न, मेरा अस्तित्व है किधर ?

चल समीर के प्राण लेकर
जीती समर, हुआ वेग प्रखर
फ़िर हुआ मगर, गया अहसास आखर -
गरज नहीं, है बोध इतना
कि क्षण को बाँध लूँ - बल उतना
स्व से हारी, देख अभिमान जितना

हाय ! अब गिरी मैं बूँद बूँद होकर -
कुछ इधर, कुछ उधर ।

Thursday, March 5, 2009

क्षणिकाएँ

है वोह दामिनी या,
कोमल कलि की सिहरन ?
प्रणय - निवेदन कैसे करुँ
क्षण-भंगुर दोनों का जीवन ।

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पथ को तकती अबला बैठी
गाती मिलन -विरह के गान ।
मैं पथिक अकिंचन मन लिए -
शुन्य की ओर करता प्रस्थान ।

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इन अश्कों का गुमान तो देखो ,
घिरता दर्दजाती बहार तो देखो ।
गिर पड़ते ये अनमनइनके कण-कण में,
बसी एक व्यथाबेज़ुबन खुमार तो देखो ।

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खुले नयन से सपने देखो
बंद नयन से अपने ,
अपने तो रहतें हैं भीतर
बाहर रहते सपने ।

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खड़ा अकेला मध्य समर में,
अपने अद्रष्टों के द्वार ।
अंतर्ध्वनि पूछे नाद बन,
जाना है किस पार ।

Monday, October 8, 2007

फूल

ये फूल हैं
इन्हें
अपनी टहनी पर रहने दो
यह
कुछ कहते हैं
सुनो
!
देखो,
इन्हें कहने दो


प्रेम-अवनी का
करते
व्यक्त सार
सौन्दर्य
,
विभा-
ले लहराते इनका
अव्यक्त
भार


गुनगुनाते अलियों का
गाना
सुनते
ले
मधु भार -
इतराते
लचकाते
कर
जतन, इन
दीवानों
से बचते

हे कोमलतम इनका मन
देता
परस समीर इनका तन -
पुलक बन्धन,
स्मित गुंजन
और
स्तब्ध मैं रह जाता
जैसे
हो कोई,
स्मृति की उलझन


मानव !
जग जननी की संतान, अभिषेक
क्यों
रहता कठोर, निर्दयी -
ज़रा इन् फूलों को देख
सजीव
,
निश्छल
समझ
, काँटों से भरे संसार में
तुम
दोनों का भाग्य है एक


ये फूल हैं
इन्हें अपनी टहनी पर रहने दो

यह कुछ कहते हैं, इन्हें
निहारो
चूमो

है
जीने का अधिकार,
इन्हें जीने दो

पथ की नीरवता
पथिक की विषमताएँ
दोनों की ही विवशता
सामंजस्य कैसे बैठाएँ ?

एक असंख्य्क रहस्यों का ज्ञाता
दूसरे में भरी अनेक अभिलाषाएँ
एक ही ओर जाते दोनों
फिर भी, पृथक कितनी दिशाएँ

टूट गयी हैं शब्दावलियाँ
शिराओं की गाथाएं भी मूक हैं
मौन धरे इस ह्रदय में
व्यथाएं अनेक, राग सिर्फ एक है

जग जननी का नैराश्य,
पथ में काँटों का बिखरना
बेसुध पथिक का भाग्य ,
पग में उसका चुभ जाना

चपल पल की जिज्ञासा
ठहर , अनूठा दृश्य यह देख जाना
आँसू टपका गया वह वैरागी
करुणा के बीज का अंकुर बन आना